Tuesday, 16 August 2016

##आज़ाद मगर कितने???##


आज़ाद मगर कितने...

आज़ाद देश में पैदा होना और पूरी आजादी के साथ अपनी जिंदगी की पहली सांस लेना...किसी भी देश के नागरिक के लिए शायद इससे बड़ा और कोई सौभाग्य नहीं होगा....लेकिन आजादी के 69 साल बाद देश की 70 वीं वर्षगांठ पर आजादी की परिभाषा को टटोलना.... इससे बड़ा दुर्भाग्य भी किसी देश के नागरिक का नहीं हो सकता। जी हां ‘आजाद मगर कितने’ का अर्थ यहीं है कि जिस आजादी को पाने के लिए हमारे वीर शहीदों ने अपने खून पसीने के साथ साथ अपनी जवानी तक न्यौछावर कर दी उस बेशकीमती आजादी के मायने की हिफाजत हम 70 सालों में भी न कर पाए।
आज मेरा देश आजाद है........मैं आजाद हूं..... कहने को हम दर्शाते भी हैं कि इस स्वतंत्र भारत में हमारे विचार आजाद हैं, हमारी सोच आजाद है.... लेकिन अगर सही मायनो में हकीकत को स्वीकारा जाए तो 70 साल की आजादी के बावजूद हम आज भी गुलामी की बेड़ियों से जकड़े हुए हैं। 15 अगस्त 1947 में हम आजाद हुए....भारत की धरती से अंग्रेजी राज समाप्त हुआ और गोरों को अपने देश वापस जाना पड़ा। हमें अपने देश पर अपनी तरह से शासन करने का हक मिला। आजादी के जश्न के साथ उम्मीद जगी कि विदेशी सरकार की गुलामी से मुक्त होने के साथ साथ हम गरीबी.....विषमता....भुकमरी....बेरोजगारी....के जंजाल से भी मुक्त होंगे।  धीरे धीरे भारत उस सपने और उम्मीद की ओर आगे भी बढ़ाता रहा.... हम विकासशील देशों की कतार में भी आ गए लेकिन कुछ था जो हमे लगातार पीछे की ओर खींच रहा था। या यूं कहें कि उस रफ्तार से आगे बढ़ने ही नहीं दे रहा था।
शहरी चकाचौंध और उच्च जीवन स्तर ने हमें बाहरी तौर पर तो चमका दिया लेकिन दूसरी तरफ की तस्वीर लगातार भयावह होती चली गई। साल दर साल असमानता और भेदभाव की जंजीरों ने हमे जकड़े रखा तो वहीं दूसरी तरफ भ्रष्टाचारा का नासूर देश को पनपने ही नहीं दे रहा था। सरकारी दावों की सच्चाई तो हम सब जानते ही हैं लेकिन सरकार की तमाम कल्याणकारी योजनाओं के पीछे का छलावा भी दिन ब दिन बढ़ता रहा। कागजों पर कुछ और धरातल पर कुछ और ही नजर आता रहा। घोटाले देश को छलनी कर रहे थे तो बदहाल स्वास्थ्य सेवाओं ने खोकला। बढ़ते अपराध और खासकर बलात्कार के साथ साथ महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों के आंकड़े तो माने हर साल नया कीर्तिमान स्थापित करने की ठान ली हो। आज भी मेरे देश का एक बड़ा हिस्सा अपने मूलभूत अधिकारों की जंग लड़ रहा है। दो वक्त की रोटी जुटाने के लिए आज भी भारत की एक तिहाई आबादी हर रोज संघर्ष करती है। आज भी देश में कुपोषण की समस्या बरकरार है। यहीं नहीं ऐसी तमाम समस्याएं है जिस्से देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा हर रोज गुजर रहा है। इतने सालों में हम आगे तो बढ़े लेकिन उस आगे बढ़ने के फेर में अमीर और सशक्त होता गया तो वहीं गरीब और गर्त में घुसता चला गया। आर्थिक असमानता ने मानों एक दूसरे के बीच गहरी खाई खोद दी हो।  

70 सालों के बावजूद देश में मौजूद इन तमाम समस्याओं को देखकर आजादी और उसके मायनों पर बड़ा प्रश्नचिंह खड़ा होता है। आजाद होकर भी आज इस आजादी की खुशी महसूस नहीं होती है। शायद इस आजादी की खुशी तभी महसूस हो सकती है जब इन दुशवारियों की बेड़ियों से हमे पूरी तरह से आजादी मिल सकेगी। बदलाव के लिए वक्त आज भी है मगर उस बदलाव को लाने के लिए कदम उठाने पड़ेंगे। अगर सही मायनों में आजादी का आनंद उठाना है तो देश के हर नागरिक को अपनी सीमाओं को तय करना होगा । नैतिकता और अनैतिकता के फर्क को समझना होगा। स्वतंत्रता मतलब मनमानी करना नही बल्कि सही गलत के बीच के फर्क को समझना होगा। विकास के हर क्षेत्र को मजबूत करना होगा। शासन प्रशासन को चेतना होगा तो जनता प्रेम, सदभाव और भाईचारे के भावों में दोबरा से पैदा करना होगा। अगर हर एक में बदलाव आएगा तो देश में बदलाव आएगा। और अगर ऐसा होगा तो आगे आने वाले स्वतंत्रता दिवस पर फिर किसी को आजादी की परिभाषा को टटोलने की जरुरत नहीं पड़ेगी।
जय हिंद..................

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