Friday, 29 July 2016

##पहाड़ है##पहाड़ सी आपदा है##और अब पहाड़ ही बनना पड़ेगा##






पहाड़ है...पहाड़ सी आपदा है... और अब पहाड़ ही बनना पड़ेगा      

जब कभी इंसान ने विकास की दुहाई देकर अपनी सीमाओं को लांगा है.... प्रकृति ने हर बार अपना रौद्र रूप दिखाकर इंसान को कड़े शब्दों में ये कहने की कोशिश की है कि “अब और बर्दाशत नही”। कभी भीषण गर्मी तो कभी कड़ाके की सर्दी......कहीं सूखे की मार से दरकती धरती...तो कहीं बारिश के बाद बाढ़ का सैलाब.....और जब इन सब से राहत नसीब हो तो अचानक से भूकंप के हिचकोले.....आंधी तूफान का भयावक रुप और अपनी सीमाओं को पार करने की नदियों की कोशिशों ने तो मानों ये साफ कर दिया है की कहीं न कही प्रकृति हम लोगों से रुष्ट है। प्रकृति के इस बढ़ते तांडव की तस्वीरें आए दिन सामने आती रहती है। इन तस्वीरों को देख मानों ऐसा लग रहा है कि जैसे प्रकृति ने सालों का बोझ एक ही पल में अपने कंधों से उतारने का फैसला किया हो।
जहां एक तरफ नदियों ने दम घोटती इमारतों से अपने किनारों को मुक्त किया तो वहीं हर दिन विकास का हथौड़ा झेल रहे पहाड़ों ने भी अपने अस्तित्व को मिटाने से गुरेज़ नही किया। बात देवभूमि की करें तो उत्तराखंड में बीते 10 सालों से मौसम के मिजाज में काफी बदलाव देखा गया है। हर दिन अराजक हो रहे मौसम से प्रदेश में अब हाड़ कपाने वाली सर्दी और झुलसा देने वाली गर्मी के साथ साथ मौनसून भी अपने प्रभाव और प्रकोप में बढौतरी कर रहा है। मौसम के इस बदलाव से पहाड़ों पर तो जनजीवन अस्त व्यस्त है ही मैदानों में भी कम परेशासनियां नहीं है। हर साल मानसून में पहाड़ों का दरकना, कई सौ रास्तों का टूटना, बादल फटना, नदियों के बढ़ते जल स्तर से गांवों के गावों का साफ होना आम बात होती जा रही है। लेकिन इस सब के पीछे आखिर वजह क्या है और क्यों अचानक से बीते कुछ सालों में प्रदेश के मौसम ने अराजक रुख अपनाया है, इसको समझने की भी जरुरत है।
उत्तराखंड नदियों और पहाड़ों का प्रदेश है...उत्तराखंड पेड़ पौधों और नैसर्गिक खूबसूरती का प्रदेश है। लेकिन बीते कुछ सालों से हमने अपने फायदे के लिए कभी नदियों का रुख मोड़ा तो कभी नदियों पर बांध बनाकर उसके प्रवाह को रोक नदियों का गला घोटने का काम किया। और जब इससे हमारा मन नहीं भरा तो हमने अंधाधुंध अवैध खनन कर नदियों का सीना चीर कर पानी के प्रवाह को तेज कर दिया। लेकिन इस बीच हम लगातार विकास की दुहाई देकर प्रकृति को पहुंच रही पीड़ा को लगातार अनसुना ही करते चले गए। हमने नदियों के किनारों पर बेतहाशा निर्माण कर उसके किनारों को उधेड़ कर अपने स्वार्थ के आशियाने तक बना डाले है। ऐसे में अगर नदी अपना रौद्र रुप धारण कर बाढ़ और जल प्रलय का तांडव मचाए तो भी हम इंसानों ने उसी को कसूर वार ठहराया।
हर साल मानसून में आसमान से पानी तो लगभग उतना ही बरसता है लेकिन कभी सोचा है की ये बरसात अब आफत की बारिश क्यो बनती जा रही है। दरअसल प्रदेशभर में लगातार जारी पेड़ों का कटान मानो धरती की खाल खींच रहा हो। पेड़ों के कटने से उसकी जड़ो के भीतर थमी मिट्टी अब बारिश और तूफान में घुलती जा रही है। लिहाजा भू-धसाव, भूस्खलन, पहाड़ों का दरकना तो होता ही है इसके साथ साथ ये मिट्टी नदी नालों के तल पर जमा होकर पानी का स्तर बढ़ाती है जिससे देश के अलग अलग हिस्सों से बाढ़ के हालात पैदा होते हैं। ऐसे में इतने सालों में बारिश की मात्रा में तो खासी बढ़ौतरी नहीं देखी गई है लेकिन ये बारिश जब धरती के इंसानों के दिए गए जख्मों पर गिरती है तो नमक का काम जरुर करती है।
आज उत्तराखंड किसी न किसी रूप में आपदा को हर रोज महसूस कर रहा है। हर साल प्रकृति के क्रोध से कई जाने जा रही है। पूराने जख्म भरते नहीं की प्रकृति की मार एक बार फिर से पड़ जाती है और अपने साथ ले जाती है कई जाने। शायद हमने खिलवाड़ ही इस कदर कर दिया है कि अब कुदरत को मनाना असंभव सा नजर आता है। लेकिन दोष प्रकृति का नहीं हमारा है इसलिए पर्यावरण और प्रकृति को सहेजने की जरुरत है जिससे ये देवभूमि जैसी थी वैसी ही बनी रहे।


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