Wednesday, 29 June 2016

##दल बदल##...#विकास या स्वार्थ# ???

दल बदल...विकास या स्वार्थ ???

कहते है कि जब नेता दलबदलते है तो मान लेना चाहिए कि चुनावी मौसन की शुरुआत हो चुकी है। दरअसल इसके पीछे कई कारण छिपे हुए है। बाजारीकरण के इस दौर में जहां सब कुछ बिकाउ है वहां अगर कुछ लोक लुभावन चीजों की आड़ में नैनिकता के कांधे का सहारा लेते हुए अगर हमारे नेता दल बदल लें तो इसमे ज्यादा हैरानी की बात भी नहीं है। आखिर ये उनका संवैधानिक हक है।  लोकतंत्र में राजनीति में दल बदले में कोई गलत बात नहीं है। अगर किसी के विचारों में बदलाव आ जाए तो उसमें हस्तक्षेप करने का हक किसी को नहीं दिया गया है। इतिहास के पन्नों को टटोल कर देखा जाए तो राजनीति के शीर्श नेताओं में शुमार सी. राजगोपालाचारी और श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने लंबे समय तक कांग्रेस का दामन थामे रखने के बाद एक दिन वैचारिक मतभेदों के कारण पार्टी का साथ छोड़ दिया था। सी. राजगोपालाचारी ने जहां अपनी अलग पार्टी बनाई तो श्यामा प्रसाद मुशर्जी ने जनसंघ की स्थापना की।
लेकिन वो दौर अलग था। उस दौर को आज के दौर से पूरी तरह नहीं जोड़ा जा सकता है। उस वक्त के नेताओं और आज के नेताओं की सोच, परिपाठी, राजनीति में आने के मकसद....सब कुछ अगल है। आज की घटनाओं में राजनेता सिद्धांत के आधार पर पार्टी छोड़ने का फैसला कर रहें हो ये भेहद कम देखा जाता है।
साल 2009 में भी कुछ ऐसे ही हुआ था जब अटल बिहारी वाजपेयी से मनमुटाव के चलते बीजेपी के धुरंधर नेताओ में शुमार कल्याण सिंह पार्टी छोड़ मुलायम सिंह यादव से हाथ मिलाकर सपा में शामिल हुए। लेकिन इस फैसले का असर भी सपा को भुगता पड़ा था। पार्टी में कल्याण के आने से नाराज आजम खां ने न सिर्फ सपा से एक्जिट की बल्कि 2009 के आम चुनावों के परिणामों में भी सपा को करारा झटका झेलना पड़ा। वहीं पार्टी में अपनापन न मिलने की वजह से 2010 में एक बार फिर कल्याण ने वापस से बीजेपी का दामन थामा तो आजम ने भी घर वापसी कर ली।
ऐसे तमाम उदाहरण की फेहरिस्त हमारी राजनीति में मौजूद है। देश के लगभग हर राज्य में दल बदल के इस नई फैशन का असर देखने को मिल ही जाता है लेकिन हालात किस तरह से बिगड़ते जा रहें हैं इसका अंदाजा अरुणाचल के बाद उत्तराखंड में उपजे हालातों से लगाया जा सकता है। उत्तराखंड में जो हुआ उससे पूरा देश वाकिफ है। विनियोग विधेयक को पेश करते वक्त सरकार के 9 विधायक एकएक बागी हो गए और सरकार अल्पमत में आ गई। वहीं सरकार को सदन में बहुमत पेश करने का मौका देने के बजाय केंद्र के इशारों पर आनन फानन में प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया। असली रार यहीं थी जब बहुमत साबित करने से पहले ही सरकार को बर्खास्त कर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगाया गया।  बस उसके बाद क्या था, पूरी लड़ाई राज्य सरकार बनाम केंद्र सरकार नजर आने लगी। नैनीताल हाईकोर्ट की सिंगल बेंच से होते हुए ये राजनैतिक संकट देश की सर्वोच्च न्यायालय तक जा पहुंचा।  मामले की गंभीरता और प्रदेश के बिगड़ते हालातों को देखते हुए न्यायालय ने शक्ति परिक्षण का आदेश दिया और केंद्र को जमकर लताड़ लगाई गई। आखिरकार 55 दिनों के संकट के काले बादल साफ हो गई और रावत सदन में बहुमत सिद्ध कर देवि देवताओं और जनता का धन्यवाद कर एक बार फिर प्रदेश की सत्ता पर काबिज हो गए।  लेकिन इस पूरे घटनाक्रम में पाला बदलने वाले राजनेताओं ने राजनीति में तो अस्थिरता ला ही दी साथ ही जनभावनाओं से साथ भी कुठाराघात किया।
ज्यादातर राजनेताओं को चुनाव लड़ने के लिए किसी न किसी पार्टी के टिकट की दरकार होती है। टिकट मिलते ही वो लोकलुभावन वादों के साथ मैदान में उतर जाता है। जनता का बड़ा हिस्सा भी ऐसें में उस उम्मीदवार को पार्टी के साथ सालों से चली आ रही अपनी विश्वसनीयता को कायम रखते हुए वोट देता है। उम्मीदवार जब चुनाव जीत जाए और किसी कारण या दूसरे दलों के प्रलोभन में आकर अगर वो पार्टी बदल ले तो ऐसे में उस जनता का क्या जिसका एक झटके में बेवकूफ बना दिया जाता है।
एक बार फिर उत्तराखंड और उत्तरप्रदेश में चुनावों की बिसात सजने लगी है। जाहिर है
आनेवाले समय में दलबदल के इस आसान से उपाय को अपनाते हुए कौन कौन से दिग्गज सिद्धांतों, पार्टी लाइन को दरकिनार करने के साथ साथ जनता की भावनाओं के साथ खेलते हुए मनचाहे दिन पाला बदल लेते है। और पाला बदलने के पीछे सिद्धांतों के साथ खिलवाड़ की दुहाई दें, लेकिन इन सबके बीच ये सवाल उठता रहेगाे कि....दलबदल विकास का है या स्वार्थ का?

Tuesday, 28 June 2016

##दून ##के @दबंग#




बेरोजगारी की "मार"
देहरादून,
 नियमितिकरण की मांग को लेकर प्रदेशभर में हड़ताल पर चल रहे उपनल कर्मियों ने जुलूस निकालकर सचिवालय कूच किया
उपनल कर्मचारी दो दिनों से हड़ताल पर हैं। आज उपनल कर्मचारी बड़ी संख्या में परेड मैदान में धरना स्थल पर एकत्रित हुए और वहां से जुलूस निकालकर सचिवालय के लिए कूच किया। पुलिस ने सचिवालय से कुछ पहले बैरीकेडिंग लगाकर जुलूस को रोक दिया। रोके जाने पर प्रदर्शनकारियों की पुलिस के साथ तीखी नोक-झोंक हुई। इस दौरान पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर लाठीचार्ज कर दिया। पुलिस ने प्रदर्शनकारियों को दौड़ा-दौड़ाकर पीटा, इस दौरान कुछ कर्मचारी चोटिल भी हुए। उपनल कर्मचारियों ने भाग कर अपने को बचाया। उपनल कर्मचारियों का कहना था कि उन्हें बार-बार छलने का कार्य किया जा रहा है। उन्होंने प्रदेश सरकार के खिलाफ जमकर नारेबाजी की। उनका कहना था कि वर्ष 2014 में विधानसभा सत्र के दौरान सदन में तत्कालीन सैनिक कल्याण मंत्री द्वारा उपनल कर्मिकों को विभागीय रूप से संविदा पर लिये जाने एवं किसी भी कर्मचारी को सेवा से पृथक नहीं किये जाने का आश्वासन दिया गया था, साथ ही उनके वेतनमान को बढ़ाये जाने का भी आश्वासन मिला था, लेकिन आज तक इस पर कोई कार्यवाही नहीं हुई। कैबिनेट ने भी इसका निर्णय लिया था, लेकिन दो वर्ष से अधिक समय व्यतीत होने के उपरांत भी अभी तक शासन द्वारा कार्मिकों को विभागीय रूप से संविदा पर लिये जाने अथवा नियमितीकरण के संबंध में कोई कार्यवाही नहीं की गई है।

#बजट पर रार#...##बरकरार##

बजट पर रार...बरकरार


प्रदेश का सियासी संकट तो किसी तरह से निपट गया लेकिन इस सियासी संकट से उपजे वित्तीय संकट के बादल अभी छटते नजर नहीं आ रहें है। आलम ये है कि प्रदेश में वित्तीय संकट गहराता जा रहा है और राष्ट्रपति शासन के खिलाफ कोर्ट में लगभग 53 दिन की लड़ाई जीतने के बाद अब राज्य सरकार इस उपजे संकट को लेकर भी आर पार की लड़ाई के मूड में है। 30 जून तक अगर सरकार बजट का इंतजाम नहीं करती है तो हालात बेकाबू होना तय है। ऐसा इसलिए क्योकि राज्य कर्मचारियों का वेतन, पेंशन समेत तमाम ऐसे खर्चे है जो राज्य सरकार की गले की फांस बनते जा रहें है। हालाकि इन खर्चों के लिए फिलहाल राज्य सरकार ने बाजार से कुछ पैसा उठाकर पूर्ति करने की कोशिश तो की है लेकिन ये इंतजाम भी अब ज्यादा दिन ठीकने वाला नहीं है।

दरअसल सियासी संकट के बाद राज्य का वित्तीय बजट पारित नहीं माना गया था लिहाजा केंद्र ने राज्य को चार महीनों का लेखानुदान कुल 13 हजार 642 करोड़ दिया था जो की जुलाई माह तक के लिए है। लेकिन ये धनराशि राज्य के तमाम खर्चों के साथ साथ सरकार की तमाम विकासकारी योजनाओं और तमाम घोषणाओं का सपना कैसा पूरा करें ये सवाल अब दिन ब दिन बड़ा होता जा रहा है।

वहीं इस संकट से उबरने के लिए राज्य सरकार के पास केवल तीन ही रास्ते बचे हैं। पहला- केंद्र से और पैसा पारित करने की गुहार लगाना। दूसरा- केंद्र की मनमानी के खिलाफ कोर्ट का रुख करना। और तीसरा- खुद बजट सत्र आहूत कर सदन में बजट पेश कर उसे पारित कराना। पहले विकल्प का प्रयोग तो राज्य सरकार लगातार करती ही आ रही है लेकिन दूसरे विकल्प यानि कोर्ट का दरवाजा खटखटाने और सियासी संकट के चलते कोर्ट के तमाम चक्कर काटने के बाद राज्य सरकार ने मानो काफी सोच समझ कर तीसरे विकल्प की ओर कदम बढ़ाया है।
सरकार ने विनियोग विधेयक को पारित करने के लिए आने वाली चार और पांच जुलाई को विधानसभा का विषेश बजट सत्र बुलाया गया है जिसमें विनियोग विधेयक को पारित करना सरकार की बड़ी चुनौतियों में से एक होगा। वो इसलिए भी क्योकि नए सिरे से सदन के पटल पर विधेयक को रखना सरकार को एक बार फिर से मत विभाजन की स्थिति में डाल सकता है। ऐसे में ऐसी तमाम संभावनाओं से बचने और अपनों की बगावत के बाद मुख्यमंत्री हरीश रावत इस वक्त हर कदम फूक फूक कर जरुर रख रहें होंगे।
बीते 53 दिनों के घटनाक्रम में कहीं न कहीं मात खाने के बाद अब केंद्र एक बार फिर राज्य सरकार को घेरने की कोशिशों में जुटा है। शायद यही राजनीति है जिसमें सरकार बनान सरकार के खेल में आम जनता का ही नूकसान होता है। जहां इस खेल में जीतना केंद्र की साख और नाक का सवाल है तो वहीं चुनावों से ठीक 6 महीने पहले राज्य सरकार के हाथ पांव बंधे होने से राज्य सरकार का बौखलाना भी जायज है।  



#राजनीति# की #रस्याण#

छुयाल प2
 राजनीति की रस्याण

जी हाँ आजकल कु टेम मा राजनीति अब बस रस्याण सिर्फ बन्कि रै ग्याई ।खूब रस्याण आणि...मजा आणि किले की विकास की राजनीति ता गदनु माँ डाल दये त्यु नेतौंन।
        आज का चकाचोंद माँ अब नेता भी हमर राजनीति कु डिस्को डान्सर ह्वे गेन , आर वैकि चक्कर माँ राजनीति माँ स्वार्थ भाव खुद ऐ जांदू। किले की चकाचोंद कु दुनिया यनि च की जैकी चक्कर मा मनखी सब बिसरी कि इ घोटाला भरष्टाचार रुपी पाप की  ढिंडि माँ गोता लगणु कु मजबूर ह्वे जांदू। आर वीं चकाचोंद का बाना निर्भगि  गलती ह्वे जांदी । मेरु मतलब आप समझने ह्वेलि.. हांजी उ फिर बाद माँ बड़ु घोटाला कु रूप माँ समणी  आन्दु ।
   ...आजकल जू हमर राजनेता या हमर जनप्रतिनिधि छन उन्की राजनीति सिर्फ और सिर्फ स्वार्थ भाव पर चलनी च। सब कुर्सी कु पिछने भगणा छन् । कै ते दायित्व चेंदु  ता केते मंत्रिपद। पर ई सब कु बीच जनता कु हित क बारे मा क्वि नई सुचुदु। जनता ता बस ये आस माँ रौंदी की कभी नेता जी ढिंडि बिटकि माछा पकड़ी लाल आर माछा ना तो कम से कम सुरवा त पिलाल। पर वक बिटिकि निकलदु भ्रस्टाचार नाम कु मगरमच्छ।
          
        पर इन नी च की सभी हमर राजनेता इन्ही ह्वा । पर अधिकतर नेता बसस राजनीति की रस्यण लिण मा ही मगन छन। बस ऊ नेता से यही उम्मीद कर्दू की कम से कम वी जनता बार मा भी सोचा जॉन तुमते कुछ सोची की वोट द्याई।

Monday, 27 June 2016

#लोकतंत्र# या #वोटतंत्र#?

लोकतंत्र या वोटतंत्र? कहते है कि लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत या यूं कहें कि उसका आधार लोक यानि जनता होती है। जनता चाहे तो किसी को भी फर्श से अर्श या अर्श से फर्श पर पल भर में पहुंचा सकती है। इसके लिए जनता के पास जो सबसे बलशाली हथियार है वो है उसका वोट देने का अधिकार। यहीं वजग है कि सत्ता को पाने के लिए जनता को लुभाना बेहद जरुरी है। इसलिए जनमानस को लुभाने के लिए आजकल राजनेता हर मुमकिन कोशिश को आजमाने में कसर नहीं छोड़ रहें है। जनता के जितना करीब जाकर पार्टी का प्रचार या गुणगान किया जाए, परिणामों में उतने ही फायदे का अनुमान लगाया जाता है।यहीं वजह है की इंटरनेट और टेलिविजन के इस युग में चुनावी रैलियों ने अपना वजूद कायम रखा है। बात अगर सीधे सीधे उत्तराखंड की करी जाए तो 2017 के चुनाव का बिगुल तमाम राजनैतिक दल फूंक चुकें है। और अब ये साफ है कि आने वाले 6 महीनों में राजधानी समेत तमाम बड़े और छोटे शहरों में हो हल्ला बढ़ना तय है। लेकिन यहां सवाल ये उठता है कि अगर तमाम राजनैतिक दलों की रैलियों का क्रम इसी तरह चलता रहा तो आखिर उन्हें वोट देने वालें लोगों के अधिकारों का हनन भी साफ तोर पर होता रहेगा। दरअसल मैं एसा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि अगर एक तरफ रैलियां निकाले जाना तमाम राजनैतिक दलों का लोकतांत्रिक अधिकार है तो फिर इस अधिकार का लाभ उठाने के लिए आमजनता के अधिकारों का हनन आखिर कब तक।जाहिर सी बात है कि जब भी प्रदेश के किसी भी कोने में रैली या महा रैली का आहवान कर हजारों लाखों की भीड़ को इक्ठ्ठा किया जाता है तो शासन प्रशान के लिए भी सुरक्षा और व्यवस्थाओ को चाक-चौबंद करने की पूरी जिम्मेदारी होती है। ऐसे में रैली से पहले और रैली के बाद में जो हुजूम पैदा होता है उससे आम जनता की नाक में दम हो जाता है। ट्रैफिक की धज्जियां उठ जाती तो सरकारी के साथ साथ प्राइवेट परिवहन व्यवस्था चरमरा जाती है। स्थानीय लोग तो इस अवस्था में किसी तरह काम चला लेते हैं लेकिन जो लोग उस समय मजबूरी या घूमने के सिलसिले में इलाकें में आए हों उनको वो दिन लंबे अरसे तक याद जरुर रहता होगा।


लोकतंत्र की ये अनूठी आजादी किसी को फायदा पहुंचाती है तो ठीक उसी वक्त किसी के लिए परेशानी का सबब बनती है। पर तमाम दलों को ये कौन समझाए कि जनता रैलियों में उपलब्धियां गिनाने से नहीं विकास की गंगा बहाने पर वोट देती है। लेकिन तमाम दलों के लिए लोकतंत्र का अर्थ केवल चुनाव...चुनावों का अर्थ पोस्टर-भाषण...उसेक बाद दलबदल राजनीति फिर मध्यावति चुनाव, राष्ट्रपति शासन और आखिरकार एक बार फिर चुनाव....शायद यही रह गया है। काश मेरे देश और प्रदेश में कुछ ऐसा हो जाए कि लोकतंत्र वोटतंत्र से बचने में कामयाब हो सके।



#गौड़ी #जन रमाल च #तन दुधाल भी हुन्दी#


एक हमारी पुराणी कहावत च क़ि बल ।।
गौड़ी जन रमाल च  तन दुधाल भी हुन्दी ???
     या ही स्थिति आजकल हमर उत्तराखंड माँ भी हुई च, आजकल जग जगा रैली हुना छन
कखि बैठक क दौर चलूँनु च,,, और खूब हल्ला मचुनु च की अब उत्तराखंड कु विकास कल्ला ।
 पुराणी सरकरो कु मुंड माँ सारा कु सारा इलज़ाम लगे जणू च की पुराणी सरकारू कुछ नी करी ,,पर निर्भगी यान भी नई सूचणा छन की यक् पेली सरकार कैकि छे । यक् ता बारी लगी छन ,,कभी तू और कभी मी,,,पर उत्तराखंड की जनता नंबर अभी तक नई आई,,,हाँ आजकल जरूर आईं च ,,ना ना क्वि  विकास या नोकरी की बात नि मी कनु।। मी बात कनु छों रैली माँ बुलावा कु। आजकल विधायक जी और बाकी नेता जी खूब आवभगत काना छिन। किले की बडू बडू नेता की रैली माँ अप्डू जन बल भी त दिखाण। टिकट कु सवाल जू च। हमर राजनेताओं माँ खूब होड़ लगी च ,खूब दौड़ भी लगणी च,,,की कखि मी पिछने न रे जों ।2017 मा विधायक साहब बणण क ज्वा इच्छा च ,,वींक चक्कर माँ नेताओ क सांस फुलणा च।
           और दौरा, रैली, और बैठक मा बस एक ही बात,,,,पहाड़ कु विकास करला,, पहाड़ की पानी अर जवानी बचोला। रोजगार दयूला,,,और भी पतानी क्या क्या । नेता खूब रमाण छन। पर 16 साल माँ अभी तक दुधाल नेता मीन कभी नी देखि। यखक नेता ता लतवाड़ गोडी क तराँ ह्वे गेन ।
      खैर अब ता बस  हम त जरुरत च यनु नेता की जू रमाल या लतवाड़ जन भी हो, पर जरा दुधाल भी हो ,,
किले की एक कहावत और भी च की,
गौड़ी भले ही लतवाड़ हो पर दुधाल भी हो।