#लोकतंत्र# या #वोटतंत्र#?
लोकतंत्र या वोटतंत्र? कहते है कि लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत या यूं कहें कि उसका आधार लोक यानि जनता होती है। जनता चाहे तो किसी को भी फर्श से अर्श या अर्श से फर्श पर पल भर में पहुंचा सकती है। इसके लिए जनता के पास जो सबसे बलशाली हथियार है वो है उसका वोट देने का अधिकार। यहीं वजग है कि सत्ता को पाने के लिए जनता को लुभाना बेहद जरुरी है। इसलिए जनमानस को लुभाने के लिए आजकल राजनेता हर मुमकिन कोशिश को आजमाने में कसर नहीं छोड़ रहें है। जनता के जितना करीब जाकर पार्टी का प्रचार या गुणगान किया जाए, परिणामों में उतने ही फायदे का अनुमान लगाया जाता है।यहीं वजह है की इंटरनेट और टेलिविजन के इस युग में चुनावी रैलियों ने अपना वजूद कायम रखा है। बात अगर सीधे सीधे उत्तराखंड की करी जाए तो 2017 के चुनाव का बिगुल तमाम राजनैतिक दल फूंक चुकें है। और अब ये साफ है कि आने वाले 6 महीनों में राजधानी समेत तमाम बड़े और छोटे शहरों में हो हल्ला बढ़ना तय है। लेकिन यहां सवाल ये उठता है कि अगर तमाम राजनैतिक दलों की रैलियों का क्रम इसी तरह चलता रहा तो आखिर उन्हें वोट देने वालें लोगों के अधिकारों का हनन भी साफ तोर पर होता रहेगा। दरअसल मैं एसा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि अगर एक तरफ रैलियां निकाले जाना तमाम राजनैतिक दलों का लोकतांत्रिक अधिकार है तो फिर इस अधिकार का लाभ उठाने के लिए आमजनता के अधिकारों का हनन आखिर कब तक।जाहिर सी बात है कि जब भी प्रदेश के किसी भी कोने में रैली या महा रैली का आहवान कर हजारों लाखों की भीड़ को इक्ठ्ठा किया जाता है तो शासन प्रशान के लिए भी सुरक्षा और व्यवस्थाओ को चाक-चौबंद करने की पूरी जिम्मेदारी होती है। ऐसे में रैली से पहले और रैली के बाद में जो हुजूम पैदा होता है उससे आम जनता की नाक में दम हो जाता है। ट्रैफिक की धज्जियां उठ जाती तो सरकारी के साथ साथ प्राइवेट परिवहन व्यवस्था चरमरा जाती है। स्थानीय लोग तो इस अवस्था में किसी तरह काम चला लेते हैं लेकिन जो लोग उस समय मजबूरी या घूमने के सिलसिले में इलाकें में आए हों उनको वो दिन लंबे अरसे तक याद जरुर रहता होगा।
लोकतंत्र की ये अनूठी आजादी किसी को फायदा पहुंचाती है तो ठीक उसी वक्त किसी के लिए परेशानी का सबब बनती है। पर तमाम दलों को ये कौन समझाए कि जनता रैलियों में उपलब्धियां गिनाने से नहीं विकास की गंगा बहाने पर वोट देती है। लेकिन तमाम दलों के लिए लोकतंत्र का अर्थ केवल चुनाव...चुनावों का अर्थ पोस्टर-भाषण...उसेक बाद दलबदल राजनीति फिर मध्यावति चुनाव, राष्ट्रपति शासन और आखिरकार एक बार फिर चुनाव....शायद यही रह गया है। काश मेरे देश और प्रदेश में कुछ ऐसा हो जाए कि लोकतंत्र वोटतंत्र से बचने में कामयाब हो सके।
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