दल बदल...विकास या स्वार्थ ???
कहते है कि जब नेता दलबदलते है तो मान लेना चाहिए कि चुनावी मौसन की शुरुआत हो चुकी है। दरअसल इसके पीछे कई कारण छिपे हुए है। बाजारीकरण के इस दौर में जहां सब कुछ बिकाउ है वहां अगर कुछ लोक लुभावन चीजों की आड़ में नैनिकता के कांधे का सहारा लेते हुए अगर हमारे नेता दल बदल लें तो इसमे ज्यादा हैरानी की बात भी नहीं है। आखिर ये उनका संवैधानिक हक है। लोकतंत्र में राजनीति में दल बदले में कोई गलत बात नहीं है। अगर किसी के विचारों में बदलाव आ जाए तो उसमें हस्तक्षेप करने का हक किसी को नहीं दिया गया है। इतिहास के पन्नों को टटोल कर देखा जाए तो राजनीति के शीर्श नेताओं में शुमार सी. राजगोपालाचारी और श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने लंबे समय तक कांग्रेस का दामन थामे रखने के बाद एक दिन वैचारिक मतभेदों के कारण पार्टी का साथ छोड़ दिया था। सी. राजगोपालाचारी ने जहां अपनी अलग पार्टी बनाई तो श्यामा प्रसाद मुशर्जी ने जनसंघ की स्थापना की।
लेकिन वो दौर अलग था। उस दौर को आज के दौर से पूरी तरह नहीं जोड़ा जा सकता है। उस वक्त के नेताओं और आज के नेताओं की सोच, परिपाठी, राजनीति में आने के मकसद....सब कुछ अगल है। आज की घटनाओं में राजनेता सिद्धांत के आधार पर पार्टी छोड़ने का फैसला कर रहें हो ये भेहद कम देखा जाता है।
साल 2009 में भी कुछ ऐसे ही हुआ था जब अटल बिहारी वाजपेयी से मनमुटाव के चलते बीजेपी के धुरंधर नेताओ में शुमार कल्याण सिंह पार्टी छोड़ मुलायम सिंह यादव से हाथ मिलाकर सपा में शामिल हुए। लेकिन इस फैसले का असर भी सपा को भुगता पड़ा था। पार्टी में कल्याण के आने से नाराज आजम खां ने न सिर्फ सपा से एक्जिट की बल्कि 2009 के आम चुनावों के परिणामों में भी सपा को करारा झटका झेलना पड़ा। वहीं पार्टी में अपनापन न मिलने की वजह से 2010 में एक बार फिर कल्याण ने वापस से बीजेपी का दामन थामा तो आजम ने भी घर वापसी कर ली।
ऐसे तमाम उदाहरण की फेहरिस्त हमारी राजनीति में मौजूद है। देश के लगभग हर राज्य में दल बदल के इस नई फैशन का असर देखने को मिल ही जाता है लेकिन हालात किस तरह से बिगड़ते जा रहें हैं इसका अंदाजा अरुणाचल के बाद उत्तराखंड में उपजे हालातों से लगाया जा सकता है। उत्तराखंड में जो हुआ उससे पूरा देश वाकिफ है। विनियोग विधेयक को पेश करते वक्त सरकार के 9 विधायक एकएक बागी हो गए और सरकार अल्पमत में आ गई। वहीं सरकार को सदन में बहुमत पेश करने का मौका देने के बजाय केंद्र के इशारों पर आनन फानन में प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया। असली रार यहीं थी जब बहुमत साबित करने से पहले ही सरकार को बर्खास्त कर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगाया गया। बस उसके बाद क्या था, पूरी लड़ाई राज्य सरकार बनाम केंद्र सरकार नजर आने लगी। नैनीताल हाईकोर्ट की सिंगल बेंच से होते हुए ये राजनैतिक संकट देश की सर्वोच्च न्यायालय तक जा पहुंचा। मामले की गंभीरता और प्रदेश के बिगड़ते हालातों को देखते हुए न्यायालय ने शक्ति परिक्षण का आदेश दिया और केंद्र को जमकर लताड़ लगाई गई। आखिरकार 55 दिनों के संकट के काले बादल साफ हो गई और रावत सदन में बहुमत सिद्ध कर देवि देवताओं और जनता का धन्यवाद कर एक बार फिर प्रदेश की सत्ता पर काबिज हो गए। लेकिन इस पूरे घटनाक्रम में पाला बदलने वाले राजनेताओं ने राजनीति में तो अस्थिरता ला ही दी साथ ही जनभावनाओं से साथ भी कुठाराघात किया।
ज्यादातर राजनेताओं को चुनाव लड़ने के लिए किसी न किसी पार्टी के टिकट की दरकार होती है। टिकट मिलते ही वो लोकलुभावन वादों के साथ मैदान में उतर जाता है। जनता का बड़ा हिस्सा भी ऐसें में उस उम्मीदवार को पार्टी के साथ सालों से चली आ रही अपनी विश्वसनीयता को कायम रखते हुए वोट देता है। उम्मीदवार जब चुनाव जीत जाए और किसी कारण या दूसरे दलों के प्रलोभन में आकर अगर वो पार्टी बदल ले तो ऐसे में उस जनता का क्या जिसका एक झटके में बेवकूफ बना दिया जाता है।
एक बार फिर उत्तराखंड और उत्तरप्रदेश में चुनावों की बिसात सजने लगी है। जाहिर है
आनेवाले समय में दलबदल के इस आसान से उपाय को अपनाते हुए कौन कौन से दिग्गज सिद्धांतों, पार्टी लाइन को दरकिनार करने के साथ साथ जनता की भावनाओं के साथ खेलते हुए मनचाहे दिन पाला बदल लेते है। और पाला बदलने के पीछे सिद्धांतों के साथ खिलवाड़ की दुहाई दें, लेकिन इन सबके बीच ये सवाल उठता रहेगाे कि....दलबदल विकास का है या स्वार्थ का?
कहते है कि जब नेता दलबदलते है तो मान लेना चाहिए कि चुनावी मौसन की शुरुआत हो चुकी है। दरअसल इसके पीछे कई कारण छिपे हुए है। बाजारीकरण के इस दौर में जहां सब कुछ बिकाउ है वहां अगर कुछ लोक लुभावन चीजों की आड़ में नैनिकता के कांधे का सहारा लेते हुए अगर हमारे नेता दल बदल लें तो इसमे ज्यादा हैरानी की बात भी नहीं है। आखिर ये उनका संवैधानिक हक है। लोकतंत्र में राजनीति में दल बदले में कोई गलत बात नहीं है। अगर किसी के विचारों में बदलाव आ जाए तो उसमें हस्तक्षेप करने का हक किसी को नहीं दिया गया है। इतिहास के पन्नों को टटोल कर देखा जाए तो राजनीति के शीर्श नेताओं में शुमार सी. राजगोपालाचारी और श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने लंबे समय तक कांग्रेस का दामन थामे रखने के बाद एक दिन वैचारिक मतभेदों के कारण पार्टी का साथ छोड़ दिया था। सी. राजगोपालाचारी ने जहां अपनी अलग पार्टी बनाई तो श्यामा प्रसाद मुशर्जी ने जनसंघ की स्थापना की।
लेकिन वो दौर अलग था। उस दौर को आज के दौर से पूरी तरह नहीं जोड़ा जा सकता है। उस वक्त के नेताओं और आज के नेताओं की सोच, परिपाठी, राजनीति में आने के मकसद....सब कुछ अगल है। आज की घटनाओं में राजनेता सिद्धांत के आधार पर पार्टी छोड़ने का फैसला कर रहें हो ये भेहद कम देखा जाता है।
साल 2009 में भी कुछ ऐसे ही हुआ था जब अटल बिहारी वाजपेयी से मनमुटाव के चलते बीजेपी के धुरंधर नेताओ में शुमार कल्याण सिंह पार्टी छोड़ मुलायम सिंह यादव से हाथ मिलाकर सपा में शामिल हुए। लेकिन इस फैसले का असर भी सपा को भुगता पड़ा था। पार्टी में कल्याण के आने से नाराज आजम खां ने न सिर्फ सपा से एक्जिट की बल्कि 2009 के आम चुनावों के परिणामों में भी सपा को करारा झटका झेलना पड़ा। वहीं पार्टी में अपनापन न मिलने की वजह से 2010 में एक बार फिर कल्याण ने वापस से बीजेपी का दामन थामा तो आजम ने भी घर वापसी कर ली।
ऐसे तमाम उदाहरण की फेहरिस्त हमारी राजनीति में मौजूद है। देश के लगभग हर राज्य में दल बदल के इस नई फैशन का असर देखने को मिल ही जाता है लेकिन हालात किस तरह से बिगड़ते जा रहें हैं इसका अंदाजा अरुणाचल के बाद उत्तराखंड में उपजे हालातों से लगाया जा सकता है। उत्तराखंड में जो हुआ उससे पूरा देश वाकिफ है। विनियोग विधेयक को पेश करते वक्त सरकार के 9 विधायक एकएक बागी हो गए और सरकार अल्पमत में आ गई। वहीं सरकार को सदन में बहुमत पेश करने का मौका देने के बजाय केंद्र के इशारों पर आनन फानन में प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया। असली रार यहीं थी जब बहुमत साबित करने से पहले ही सरकार को बर्खास्त कर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगाया गया। बस उसके बाद क्या था, पूरी लड़ाई राज्य सरकार बनाम केंद्र सरकार नजर आने लगी। नैनीताल हाईकोर्ट की सिंगल बेंच से होते हुए ये राजनैतिक संकट देश की सर्वोच्च न्यायालय तक जा पहुंचा। मामले की गंभीरता और प्रदेश के बिगड़ते हालातों को देखते हुए न्यायालय ने शक्ति परिक्षण का आदेश दिया और केंद्र को जमकर लताड़ लगाई गई। आखिरकार 55 दिनों के संकट के काले बादल साफ हो गई और रावत सदन में बहुमत सिद्ध कर देवि देवताओं और जनता का धन्यवाद कर एक बार फिर प्रदेश की सत्ता पर काबिज हो गए। लेकिन इस पूरे घटनाक्रम में पाला बदलने वाले राजनेताओं ने राजनीति में तो अस्थिरता ला ही दी साथ ही जनभावनाओं से साथ भी कुठाराघात किया।
ज्यादातर राजनेताओं को चुनाव लड़ने के लिए किसी न किसी पार्टी के टिकट की दरकार होती है। टिकट मिलते ही वो लोकलुभावन वादों के साथ मैदान में उतर जाता है। जनता का बड़ा हिस्सा भी ऐसें में उस उम्मीदवार को पार्टी के साथ सालों से चली आ रही अपनी विश्वसनीयता को कायम रखते हुए वोट देता है। उम्मीदवार जब चुनाव जीत जाए और किसी कारण या दूसरे दलों के प्रलोभन में आकर अगर वो पार्टी बदल ले तो ऐसे में उस जनता का क्या जिसका एक झटके में बेवकूफ बना दिया जाता है।
एक बार फिर उत्तराखंड और उत्तरप्रदेश में चुनावों की बिसात सजने लगी है। जाहिर है
आनेवाले समय में दलबदल के इस आसान से उपाय को अपनाते हुए कौन कौन से दिग्गज सिद्धांतों, पार्टी लाइन को दरकिनार करने के साथ साथ जनता की भावनाओं के साथ खेलते हुए मनचाहे दिन पाला बदल लेते है। और पाला बदलने के पीछे सिद्धांतों के साथ खिलवाड़ की दुहाई दें, लेकिन इन सबके बीच ये सवाल उठता रहेगाे कि....दलबदल विकास का है या स्वार्थ का?
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