Thursday, 8 September 2016

##क्या कांग्रेस के लिए खतरे की घंटी है छात्र संघ चुनावों के परिणाम?##

क्या कांग्रेस के लिए खतरे की घंटी है छात्र संघ चुनावों के परिणाम?

छात्र राजनीति से तप रहे उत्तराखंड के कॉलेजों में छात्र संघ चुनाव धीरे धीरे संपन्न हो रहें है। कॉलेज में नेतृत्व चुनने की ये परिपाटी सियासी गलियारों में खुलेआम न सही लेकिन दबी जुबान से बड़ा महत्व रखती है। साल दर साल कम छात्र संख्या वाले कॉलेजों में भले ही संगठनात्मक तरीके से चुनाव न लड़ा जाता हो लेकिन बड़े कॉलेजों में छात्र संगठन अपना प्रत्याशी घोषित कर इस महासंग्राम में भाग लेता है। और इसी महासंग्राम के जरिए तमाम राजनैतिक दलों को लेकर युवाशक्ति की विचारधारा का अंदाजा भी लगाया जा सकता है। माना जाता है कि छात्र संघ चुनावों में ABVP का प्रदर्शन अगर बेहतर रहा तो उससे बीजेपी को संजीवनी मिलती है तो वहीं अगर NSUI कॉलेजों की सत्ता पर काबिज हो जाए तो सत्ता पर काबिज हरीश रावत सरकार और उनके प्रयासों को विधानसभा चुनावों से पहले बल मिलेगा। लेकिन अगर इस बार के चुनावों के परिणामों की बात करें और ज्यादा दूर न जाते हुए केवल राजधानी दून के विश्वविद्यालों के छात्र संघ चुनावों पर नजर डाले तो इस बार चुनावी साल होने के कारण ये मुकाबला बेहद रोमांचक रहा।

राजधानी देहरा दून के कॉलेजों में सत्ताधारी पार्टी की छात्र ईकाइ NSUI की उम्मीदों को इस बार करारा झटका लगा है। छात्र संघ चुनावों के इस महामुकाबले में जहां इस बार बीजेपी की छात्र संघ ईकाइ ABVP जश्न में चूर है तो वहीं कांग्रेस की उम्मीदों को NSUI के खराब प्रदर्शन से झटका लगा है। जी हां...बात अगर सूबे के सबसे बड़े कॉलेज DAV(PG) कि की जाए तो यहां पर एक बार फिर ABVP इतिहास रचने में कामयाब रही। अध्यक्ष पद पर लगातार 10वीं बार ABVP ने जीत दर्ज की और पार्टी प्रत्याशी राहुल कुमार ने बागी संजय तोमर को 10 वोटों से शिकस्त दी। वहीं NSUI को इस पद पर तीसरे स्थान पर संतोष करना पड़ा। ऐसे में कांग्रेस और उसकी छात्रसंघ ईकाइ NSUI के लिए DAV(PG) कॉलेज पिछले 10 सालों से किसी अभेद्य दुर्ग की तरह बनता जा रहा है।

वहीं अगर बात SGRR कॉलेज और एमकेपी कॉलेज कि, की जाए तो इन दोनों ही कॉलेजों में ABVP अपना परचम लहराने में कामयाब रही। पीछले साल जहां SGRR कॉलेज में NSUI ने अध्यक्ष पद पर जीत हासिल की थी तो वहीं इस बार ABVP  ने उससे अध्यक्ष पद छीन लिया है। वही एमकेपी कॉलेज में तो चुनाव पूरी तरह से ही ABVP के पक्ष में रहा और सभी पदों पर ABVP के प्रत्याशियों ने बाजी मार ली। अगर बात विकासनगर और डोईवाला की कि जाए तो वहां भी ABVP ने पूरे पैनल पर कब्जा कर जीत हासिल की है। शायद यही वजह है कि डीबीएस कॉलेज से ABVP को जो निराशा हाथ लगी है उसको लेकर पार्टी में ज्यादा निराशा नहीं है।
कहते है छात्र संघ चुनावों को विधानसभा चुनावों के दर्पण के तौर पर भी देखा जाता है। ऐसे में अपने मजबूत चुनाव प्रबंधन से जहां बीजेपी की ABVP को फिलहात राहत है तो वहीं सत्ता पर दोबारा से काबिज होने का सपना देख रही कांग्रेस के लिए राजधानी से आए छात्र संघ चुनावों के नतीजे किसी बड़े झटके से कम नहीं है। आम चुनाव हों या विधानसभा चुनाव....देखने को मिलता रहा है कि चुनावों में युवा शक्ति ही सबसे ज्यादा भागदौड़ करती है। ऐस में युवा वोटरों का बदलता रुझान सत्ता में काबिज होने के बावजूद कांग्रेस की ओर नहीं है। NSUI के खराब प्रदर्शन के बाद पार्टी दिग्गजों के लिए ये परिणाम किसी बड़े संकेत और संदेश है के साथ साथ खतरे की घंटी के बराबर है।

Saturday, 3 September 2016

#जब फिसली भट्ट की जुबान##


जब फिसली भट्ट की जुबान....
प्रदेशभर में धड़ा-धड़ पर्दाफाश यात्राओं के जरिए प्रदेश सरकार की नाकामियों को जनता के सामने रखने और केंद्र की उपलब्धियों का जमकर बखान करने वाली बीजेपी किसी सुपर फास्ट रेल गाड़ी की तरह तेज रफ्तार के साथ सरपट प्रदेश भर में जोर शोर से प्रसार प्रचार में जुटी हुई थी कि
अचानक पार्टी प्रदेश अध्यक्ष अजय भट्ट की जुबान फिसली और पार्टी के उमंग और उद्देश्य भरे इस सफर पर मानों एक ब्रेक लग गया।
दरअसल आगामी चुनावों के मद्देनजर बीजेपी प्रदेश की लगभग 40 विधानसभाओं में राज्य सरकार के खिलाफ पर्दाफाश रैली का आयोजन कर रही है। पार्टी के तमाम दिग्गज नेताओं के साथ साथ प्रदेश अध्यक्ष सरकार के खिलाफ मोर्चा संभाले हुए हैं। लेकिन पार्टी के सिपहसालार अजय भट्ट जब रुड़की में पर्दाफाश रैली के जरिए जनता को संबोधित कर राज्य सरकार पर हमलावर हो रहे थे तो अचानक उनकी जुबान फिसली और उन्होंने सरकार के साथ साथ ब्राह्मण सामाज को भी लपेटे में ले लिया। फिर क्या था, धीरे धीरे बात फैली और भट्ट के आपत्तिजनक बयान बाजी की चारों ओर से आलोचनाए शुरु होने लगी। खुद ब्राह्मण होने के बावजूद आखिर कैसे भट्ट की जुबान फिसली इस पर विश्वास न तो पार्टी को हो रहा है न बाहरी लोगों को। लिहाजा प्रदेश भर में पूरा ब्राह्मण समाज एक जुट होकर न सिर्फ अजय भट्ट की घोर निंदा कर रहा है बल्कि प्रदेश अध्यक्ष को पद से हटाए जाने की भी मांग कर रहा है। जगह जगह भट्ट के पुतले जलाए जा रहें है और प्रदेश अध्यक्ष के विरोधी स्वर पार्टी आलाकमान के कानों तक भी पहुंच चुके है।
ये पहला मौका नहीं है जब भट्ट आपत्तिजनक बयानबाजी पर घिरे हों। इससे पहले जब राज्य सरकार चारधाम यात्रा का आगाज करने जा रही थी तो अजय भट्ट की अगुवाई में पार्टी ने “श्रद्धालुओं को सिर पर कफन बांधकर यात्रा पर आने की सलाह” दी थी। जिसके बाद इस बयान की चारों ओर निंदा हुई और भट्ट को प्रदेश अध्यक्ष के पद से हटाए जाने की मांग तब भी की गई थी। वहीं दोबारा से इस तरह की बयानबाजी सामने आने के बाद भट्ट भी भाजपा के उन तमाम नेताओं की कतार में शुमार हो गए हैं जिनके बयानों को लेकर केंद्रीय स्तर पर बीजेपी कई बार शर्मसार हुई है।
भट्ट के इस बयान से पार्टी को फिलहाल तो काफी आलोचनाए झेलनी पड़ रही है लेकिन वहीं बैक फुट पर नजर आ रही कांग्रेस को बैठे बिठाए मुद्दा भी मिल गया। देखा जाए तो बीजेपी की पर्दाफाश यात्रा का असर धीरे धीरे प्रदेश भर में देखा जा रहा था। खुद कांग्रेस पार्टी भी पर्दाफाश यात्रा की बढ़ती लोकप्रियता से कहीं न कहीं घबरा रही थी। जिसके बाद कुछ दिन पहले खुद सुबे के मुखिया ने सितंबर में कांग्रेस की फीड बैक यात्रा का ऐलान किया। विकास संकल्प यात्रा के नाम से निकाले जाने वाली कांग्रेस की फीड बैक यात्रा में बीजेपी के प्रचार प्रसार का जनता पर कितना असर पड़ा है उसकों लेकर जनता से फीड बैक लिया जाता और उस हिसाब से आगे की रणनीति बनाई जाती। लेकिन भट्ट के इस बयान के सामने आने के बाद मानों कांग्रेस को बिन मांगे एक सुनहरा अवसर मिल गया हो। वहीं अब पूरी कांग्रेस पार्टी दल बल के साथ इससे न सिर्फ भुनाने में जुट गई है बल्कि ब्रहामण वोट बैंक को अपनी ओर मोड़ने के लिए भी भट्ट के बयान को ब्रह्मास्त्र की तरह इस्तेमाल किए जाने की रणनीति भी लगभग तैयार की जा चुकी है।

भले ही भट्ट इस मामले पर मांफी मांग रहे हो लेकिन वहीं वो इस मुद्दे को कांग्रेस का षड्यंत्र बताकर इसे पर्दाफाश की लोकप्रियता पर सीएम की बौखलाहट भी करार दे रहें है। चुनाव सिर पर हैं ऐसे में जाहिर है कि राजनीति लगातार दिलचस्प होती जाएगी.....लेकिन तमाम प्रचार प्रसार के बीच राजनेताओं की फिसलती जुबान को जनता भूलती है या नहीं इसका अंदाजा तो चुनाव के परिणाम आने के बाद नेताओं की झोली में पड़े वोटों से लगाया जा सकता है।

Tuesday, 16 August 2016

##आज़ाद मगर कितने???##


आज़ाद मगर कितने...

आज़ाद देश में पैदा होना और पूरी आजादी के साथ अपनी जिंदगी की पहली सांस लेना...किसी भी देश के नागरिक के लिए शायद इससे बड़ा और कोई सौभाग्य नहीं होगा....लेकिन आजादी के 69 साल बाद देश की 70 वीं वर्षगांठ पर आजादी की परिभाषा को टटोलना.... इससे बड़ा दुर्भाग्य भी किसी देश के नागरिक का नहीं हो सकता। जी हां ‘आजाद मगर कितने’ का अर्थ यहीं है कि जिस आजादी को पाने के लिए हमारे वीर शहीदों ने अपने खून पसीने के साथ साथ अपनी जवानी तक न्यौछावर कर दी उस बेशकीमती आजादी के मायने की हिफाजत हम 70 सालों में भी न कर पाए।
आज मेरा देश आजाद है........मैं आजाद हूं..... कहने को हम दर्शाते भी हैं कि इस स्वतंत्र भारत में हमारे विचार आजाद हैं, हमारी सोच आजाद है.... लेकिन अगर सही मायनो में हकीकत को स्वीकारा जाए तो 70 साल की आजादी के बावजूद हम आज भी गुलामी की बेड़ियों से जकड़े हुए हैं। 15 अगस्त 1947 में हम आजाद हुए....भारत की धरती से अंग्रेजी राज समाप्त हुआ और गोरों को अपने देश वापस जाना पड़ा। हमें अपने देश पर अपनी तरह से शासन करने का हक मिला। आजादी के जश्न के साथ उम्मीद जगी कि विदेशी सरकार की गुलामी से मुक्त होने के साथ साथ हम गरीबी.....विषमता....भुकमरी....बेरोजगारी....के जंजाल से भी मुक्त होंगे।  धीरे धीरे भारत उस सपने और उम्मीद की ओर आगे भी बढ़ाता रहा.... हम विकासशील देशों की कतार में भी आ गए लेकिन कुछ था जो हमे लगातार पीछे की ओर खींच रहा था। या यूं कहें कि उस रफ्तार से आगे बढ़ने ही नहीं दे रहा था।
शहरी चकाचौंध और उच्च जीवन स्तर ने हमें बाहरी तौर पर तो चमका दिया लेकिन दूसरी तरफ की तस्वीर लगातार भयावह होती चली गई। साल दर साल असमानता और भेदभाव की जंजीरों ने हमे जकड़े रखा तो वहीं दूसरी तरफ भ्रष्टाचारा का नासूर देश को पनपने ही नहीं दे रहा था। सरकारी दावों की सच्चाई तो हम सब जानते ही हैं लेकिन सरकार की तमाम कल्याणकारी योजनाओं के पीछे का छलावा भी दिन ब दिन बढ़ता रहा। कागजों पर कुछ और धरातल पर कुछ और ही नजर आता रहा। घोटाले देश को छलनी कर रहे थे तो बदहाल स्वास्थ्य सेवाओं ने खोकला। बढ़ते अपराध और खासकर बलात्कार के साथ साथ महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों के आंकड़े तो माने हर साल नया कीर्तिमान स्थापित करने की ठान ली हो। आज भी मेरे देश का एक बड़ा हिस्सा अपने मूलभूत अधिकारों की जंग लड़ रहा है। दो वक्त की रोटी जुटाने के लिए आज भी भारत की एक तिहाई आबादी हर रोज संघर्ष करती है। आज भी देश में कुपोषण की समस्या बरकरार है। यहीं नहीं ऐसी तमाम समस्याएं है जिस्से देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा हर रोज गुजर रहा है। इतने सालों में हम आगे तो बढ़े लेकिन उस आगे बढ़ने के फेर में अमीर और सशक्त होता गया तो वहीं गरीब और गर्त में घुसता चला गया। आर्थिक असमानता ने मानों एक दूसरे के बीच गहरी खाई खोद दी हो।  

70 सालों के बावजूद देश में मौजूद इन तमाम समस्याओं को देखकर आजादी और उसके मायनों पर बड़ा प्रश्नचिंह खड़ा होता है। आजाद होकर भी आज इस आजादी की खुशी महसूस नहीं होती है। शायद इस आजादी की खुशी तभी महसूस हो सकती है जब इन दुशवारियों की बेड़ियों से हमे पूरी तरह से आजादी मिल सकेगी। बदलाव के लिए वक्त आज भी है मगर उस बदलाव को लाने के लिए कदम उठाने पड़ेंगे। अगर सही मायनों में आजादी का आनंद उठाना है तो देश के हर नागरिक को अपनी सीमाओं को तय करना होगा । नैतिकता और अनैतिकता के फर्क को समझना होगा। स्वतंत्रता मतलब मनमानी करना नही बल्कि सही गलत के बीच के फर्क को समझना होगा। विकास के हर क्षेत्र को मजबूत करना होगा। शासन प्रशासन को चेतना होगा तो जनता प्रेम, सदभाव और भाईचारे के भावों में दोबरा से पैदा करना होगा। अगर हर एक में बदलाव आएगा तो देश में बदलाव आएगा। और अगर ऐसा होगा तो आगे आने वाले स्वतंत्रता दिवस पर फिर किसी को आजादी की परिभाषा को टटोलने की जरुरत नहीं पड़ेगी।
जय हिंद..................

Sunday, 24 July 2016

मुझको न भाये तेरी ‘गालियाँ'


यूपी की सियासत में आजकल अभद्र भाषा (गालियो) का दौर चल रहा है। 
 बीजेपी के नेता दयाशंकर के द्वारा मायावती पर की गयी अभद्र टिप्पणी को लेकर यूपी में गालियो का घमासान शुरू हो गया है।
   जी हां....बहनजी उर्फ बसपा सुप्रीमो मायावती को बीजेपी के प्रदेश उपाध्यक्ष दयाशंकर यादव ने अपशब्द कहे...जो बेहद निंदनीय है....और उनके मानसिक दिवालियापन की निशानी है.....लेकिन संसद से लेकर सड़क तक हंगामे का दौर तब शुरु हुआ जब माया के कार्यकर्ताओं ने भी उसी अभद्र भाषा का प्रयोग कर दयाशंकर से परिवार पर प्रहार करना शुरु कर दिया।  बीजेपी ने दयाशंकर को पार्टी से निष्कासित कर अपना दायित्व पूरा किया तो कानून अपने स्तर से मामले पर अपना काम कर रहा है लेकिन इस सब के बीच जो शुरु हो चुकी है वो है राजनीति....
इस पूरे मामले को 2017 की तैयारियों के बीच एक पैराशूट मुद्दे की तरह हम देख सकते है। दयाशंकर द्वारा इस्तमाल की गई अभद्र भाषा जो बसपा के लिए बीजेपी को कठघरे में खड़ा करने का हथियार बन चुकी थी वहीं हथीयार अब बीजोपी बसपा के खिलाफ चलाने लगी है। बसपा दयाशंकर के कड़वे बोल का मुद्दा भुनाने में लगी है तो बीजेपी माया के उकसाने पर पार्टी कार्यकर्ताओं द्वारा अपनाए गए उसी रवैये को। यानी ये साफ है कि फिलहाल दोनों ही दलों को वो मुद्दा मिल गया है जिसके बल पर कम से कम चुनावी तैयारियों का आगाज तो धमाकेदार रहा,पर इस सब का जनता पर क्या असर होगा ये तो जनता अपने वोट की चोट से बताएगी की उनको क्या भाया????
   
          

Sunday, 10 July 2016

##नमामि गंगे ##

गंगा सफाई अभियान
सोशल साइट्स पे वायरल होता गंगा सफाई अभियान क लिए बना ## नमामि गंगे एंथम##
https://youtu.be/MxQG4HNYMTU

##तस्वीरें बोलती हैं##



हो सके तो लौट आ....
किसी ने सच कहा है कि तस्वीरें बोलती है पर आज जिस तस्वीर की बात हम कर रहें है वो सिर्फ बोलती ही नहीं है बल्कि अंदर तक दिल को झकझोर कर हजार तरह के सवालों को उठा रही है। एक ताले पर पनपती इस नई जिंदगी की तस्वीर इन दिनों सोशल मीडिया पर काफी छायी हुई है। शायद वो इस लिए क्योंकि इस तस्वीर की गहराई को हर वो इंसान महसूस सकता है,जिसने जिंदगी में कभी न कभी कठोर फैसले लिए हो या फिर कुछ पीछे छोड़ा हो। लेकिन वहीं दूसरी ओर कुदरत भी शायद इस तस्वीर के जरिए कुछ अपने ही लहजे में सकरात्मकता और अपनेपन का संदेश दे रही हो। ये तस्वीर है ही कुछ ऐसी कि हर किसी को अपनी ओर खीचने का दम रखती है और हर किसी के लिए अलग अलग मायने रखती है। इस तस्वीर को समझने वालों के हालात भले ही एक दूसरे से अगल हो लेकन जो कोई भी इस तस्वीर को समझ पाया होगा उसके जज्बात एक से जरुर रहें होंगे।

पलायन का दंक्ष भी कुछ ऐसा ही है। अकसर हालातों के आगे या आगे बढ़ने के फेर में जो अपनी जमीन से दूर हो जाता है वो चाह कर भी वापस अपनी उसी जिंदगी में लौट नहीं पाता। दो वक्त की रोटी के इंतजाम का सवाल हो या फिर शहरों की चकाचौंद को आजमाने की ख्वाहिश। इन दोनों ही हालातों में कई ऐसे परिवार हैं जो पलायन कर अपने आशियानों पर ताला जड़ कहीं और बस गई है। उत्तराखंड समेत देश के कई हिस्से ऐसे है जहां लोगों को अपनी आबोहवा को छोड़ नई बसेरे की ओर बढ़ना पड़ा। परिस्थितियों या महत्वकांक्षाओं की भेंट चढ़े ऐसे तमाम घर हैं जहां लगा ये ताले पीड़ा के साथ साथ परिश्रम और जरुरतों की कहानियां बयां करता है। पर उसी ताले पर सांस लेती एक खूबसूरत सी जिंदगी मानों कुदरत के मन की भावनाओं को बयां कर रही है। बिन माटी पनपती ये जिंदगी कुदरत के उस इशारे को समझाने की कोशिश है कि इस दुनियां में चाहे इंसान किसी भी तरह का व्यवहार कर परिस्थितियों के हिसाब से खुद को बदल कर बेगाना हो जाए लेकिन कुदरत आज भी बाहें फैलाए उसकों फिर से अपनाने को तैयार रहती है। वो घर फिर से गुलजार हो या न हो लेकिन उस घर पर लगे ताले पर बढ़ती जिंदगी ये उम्मीद देती है कि सब ठीक है...सब अच्छा है....और इसी ताले पर पड़ती सूरज की वो चमचमाती किरणे इसी उम्मीद को और भी ज्यादा बल देती है कि अगर आप एक कदम बढ़ाओगे तो प्रकृति आपके इरादों को ताकत देगी ।
शायद जिस बात को इंसानों ने समझने में कमी कर दी वहीं बात इस तस्वीर ने बड़ी गहराई से समझाई है। मिलना बिछड़ना तो रिवाज सा बन गया है जिंदगी में...लेकिन बिछड़ने के बावजूद भी बहुत जुड़ा है ये सिखाया है इस तस्वीर ने। वापस लौटने की उम्मीद को फिर से जगाया है इस तस्वीर ने...तो अपनी मिट्टी की अहमियत को भी समझाया है इस तस्वीर ने। क्या पता वो मिट्टी आप से भी ज्यादा आपकों याद करती हो। काश की इस तस्वीर का संदेश समझ कर एक बार नही हम हजार ऐसी कोशिशें करे की जो घर, जो मिट्टी, जो आबोहवा और जिन अपनों को हम कोसो दूर छोड़ आये हैं उनके पास कभी न कभी लौट सकें। और जो छुट गया है उसे समेट सकें।
 



Tuesday, 5 July 2016

##उपनल ##का उपाय???

उपनल का उपाय???
कई दिनों से अपने नियमितीकरण की मांग को लेकर उपनल कर्मचारी धरने पर बैठे हैं ,और अब मांगे न माने जाने तक  उन्होंने अनशन पर बैठने का निर्णय लिया है। मुख्यमंत्री से उपनल का प्रतिनिधिमंडल मिला भी पर कोई बात नहीं बनी, हाँ सीएम साहब ने वेतन वृद्धि पर विचार करने का आश्वासन जरूर दिया पर कर्मचारी संतुष्ट नै हुए और अनशन शुरू कर दिया। खैर अभी इसका हल निकलता नज़र नहीं आ रहा है।
 क्योंकि इस मुद्दे का राजनीतिकरण हो चूका है। यहाँ तक कहा जा रहा है की,उपनल का ये धरना किसी पार्टी विशेष या किसी नेता के द्वारा प्रायोजित है । हालाँकि उपनल कर्मचारी इसे सिरे से खारिज कर रहे हैं उनका साफ़ साफ़ कहना है की हम सरकार के कर्मचारी हैं और सरकार के आगे अपनी मांग रख रहे हैं । लेकिन सरकार द्वारा नकारात्मक रुख दिखने के बाद अब उपनल कर्मचारियों ने धरना स्थल पर राजनेताओ को   मंच पर स्थान दे दिया है,आज इसी कड़ी में हरक सिंह रावत भी धरना स्थल पहुंचे और अपना समर्थन दिया।
       अब इस मुद्दे पर धीरे धीरे राजनीती गरमाती जायेगी, पर इस राजनीति की गर्मी में कही उपनल कर्मियो का आंदोलन के साथ साथ उत्तराखंड का विकास न झुलस जाये,क्योंकि उपनल से विभिन्न विभागों में लगभग 20,000 कर्मचारी हैं जिनके हड़ताल पर जाने से व्यवस्थाएं चरमरा रही हैं,जिसका सीधा नुक्सान उत्तराखंड की जनता को उठाना पड़ रहा है  इसलिए इसे राजनीति का अखाडा न बनाकर अगर इसका उपाय निकाला जाए,तो वो प्रदेश व जनहित  में होगा।
उम्मीद है की सरकार इसका जल्द ही कोई उपाय निकालेगी।

Sunday, 3 July 2016

##Nice view ##of #doon vally#

चलो छत से एक तस्वीर हम भी ले सुन्दर दून की


Friday, 1 July 2016

##सौणा का मैना##... #ब्वे कणुके रैणा#...


सौणा का मैना... ब्वे कणुके रैणा...
    बहुत ही पुराणु गांणु च की , सौणा का मैना... ब्वे कणुके रैणा...कुयेड़ि लागली..
    आज वाक़ई उ हालात पैदा ह्वे गैनी पहाड़ माँ
अभी मानसून आई द्वी दिन भी नी बीती और जग जगा ..आपदा जनि स्थिति पैदा ह्वे गैनी.. नदी नाला उफान पर ऐ गैनी। ता कखि स्लैब ऐ गेन।लोग डरणा लगि छान...कुछ गाँव टापू मा तब्दील ह्वे गेन। बड़ी बुरी स्थिति च पर ...???

         हमारी सरकार वादा दावा भी कनि रैंदी की सबकुछ ठीक कर याली या काना छा ।पर ज्वा स्थिति अभी च वींते देखिकी,सरकार आर  आपदा प्रबंधन की पोल खुलूँनु च। अभी जू  भी आर जक बटिकि भी खबर आणि च की वे देखिकी इ लगणु की जू लोग अभी वख वीं आपदा माँ फँसी छान उंके गिचि और मन माँ बीएस यु ही आना होलु की सोणा का मैना ब्वे कणुके रैणा.....
           कैंथुर ठाकुर सबकी रक्षा केरन....











Wednesday, 29 June 2016

##दल बदल##...#विकास या स्वार्थ# ???

दल बदल...विकास या स्वार्थ ???

कहते है कि जब नेता दलबदलते है तो मान लेना चाहिए कि चुनावी मौसन की शुरुआत हो चुकी है। दरअसल इसके पीछे कई कारण छिपे हुए है। बाजारीकरण के इस दौर में जहां सब कुछ बिकाउ है वहां अगर कुछ लोक लुभावन चीजों की आड़ में नैनिकता के कांधे का सहारा लेते हुए अगर हमारे नेता दल बदल लें तो इसमे ज्यादा हैरानी की बात भी नहीं है। आखिर ये उनका संवैधानिक हक है।  लोकतंत्र में राजनीति में दल बदले में कोई गलत बात नहीं है। अगर किसी के विचारों में बदलाव आ जाए तो उसमें हस्तक्षेप करने का हक किसी को नहीं दिया गया है। इतिहास के पन्नों को टटोल कर देखा जाए तो राजनीति के शीर्श नेताओं में शुमार सी. राजगोपालाचारी और श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने लंबे समय तक कांग्रेस का दामन थामे रखने के बाद एक दिन वैचारिक मतभेदों के कारण पार्टी का साथ छोड़ दिया था। सी. राजगोपालाचारी ने जहां अपनी अलग पार्टी बनाई तो श्यामा प्रसाद मुशर्जी ने जनसंघ की स्थापना की।
लेकिन वो दौर अलग था। उस दौर को आज के दौर से पूरी तरह नहीं जोड़ा जा सकता है। उस वक्त के नेताओं और आज के नेताओं की सोच, परिपाठी, राजनीति में आने के मकसद....सब कुछ अगल है। आज की घटनाओं में राजनेता सिद्धांत के आधार पर पार्टी छोड़ने का फैसला कर रहें हो ये भेहद कम देखा जाता है।
साल 2009 में भी कुछ ऐसे ही हुआ था जब अटल बिहारी वाजपेयी से मनमुटाव के चलते बीजेपी के धुरंधर नेताओ में शुमार कल्याण सिंह पार्टी छोड़ मुलायम सिंह यादव से हाथ मिलाकर सपा में शामिल हुए। लेकिन इस फैसले का असर भी सपा को भुगता पड़ा था। पार्टी में कल्याण के आने से नाराज आजम खां ने न सिर्फ सपा से एक्जिट की बल्कि 2009 के आम चुनावों के परिणामों में भी सपा को करारा झटका झेलना पड़ा। वहीं पार्टी में अपनापन न मिलने की वजह से 2010 में एक बार फिर कल्याण ने वापस से बीजेपी का दामन थामा तो आजम ने भी घर वापसी कर ली।
ऐसे तमाम उदाहरण की फेहरिस्त हमारी राजनीति में मौजूद है। देश के लगभग हर राज्य में दल बदल के इस नई फैशन का असर देखने को मिल ही जाता है लेकिन हालात किस तरह से बिगड़ते जा रहें हैं इसका अंदाजा अरुणाचल के बाद उत्तराखंड में उपजे हालातों से लगाया जा सकता है। उत्तराखंड में जो हुआ उससे पूरा देश वाकिफ है। विनियोग विधेयक को पेश करते वक्त सरकार के 9 विधायक एकएक बागी हो गए और सरकार अल्पमत में आ गई। वहीं सरकार को सदन में बहुमत पेश करने का मौका देने के बजाय केंद्र के इशारों पर आनन फानन में प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया। असली रार यहीं थी जब बहुमत साबित करने से पहले ही सरकार को बर्खास्त कर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगाया गया।  बस उसके बाद क्या था, पूरी लड़ाई राज्य सरकार बनाम केंद्र सरकार नजर आने लगी। नैनीताल हाईकोर्ट की सिंगल बेंच से होते हुए ये राजनैतिक संकट देश की सर्वोच्च न्यायालय तक जा पहुंचा।  मामले की गंभीरता और प्रदेश के बिगड़ते हालातों को देखते हुए न्यायालय ने शक्ति परिक्षण का आदेश दिया और केंद्र को जमकर लताड़ लगाई गई। आखिरकार 55 दिनों के संकट के काले बादल साफ हो गई और रावत सदन में बहुमत सिद्ध कर देवि देवताओं और जनता का धन्यवाद कर एक बार फिर प्रदेश की सत्ता पर काबिज हो गए।  लेकिन इस पूरे घटनाक्रम में पाला बदलने वाले राजनेताओं ने राजनीति में तो अस्थिरता ला ही दी साथ ही जनभावनाओं से साथ भी कुठाराघात किया।
ज्यादातर राजनेताओं को चुनाव लड़ने के लिए किसी न किसी पार्टी के टिकट की दरकार होती है। टिकट मिलते ही वो लोकलुभावन वादों के साथ मैदान में उतर जाता है। जनता का बड़ा हिस्सा भी ऐसें में उस उम्मीदवार को पार्टी के साथ सालों से चली आ रही अपनी विश्वसनीयता को कायम रखते हुए वोट देता है। उम्मीदवार जब चुनाव जीत जाए और किसी कारण या दूसरे दलों के प्रलोभन में आकर अगर वो पार्टी बदल ले तो ऐसे में उस जनता का क्या जिसका एक झटके में बेवकूफ बना दिया जाता है।
एक बार फिर उत्तराखंड और उत्तरप्रदेश में चुनावों की बिसात सजने लगी है। जाहिर है
आनेवाले समय में दलबदल के इस आसान से उपाय को अपनाते हुए कौन कौन से दिग्गज सिद्धांतों, पार्टी लाइन को दरकिनार करने के साथ साथ जनता की भावनाओं के साथ खेलते हुए मनचाहे दिन पाला बदल लेते है। और पाला बदलने के पीछे सिद्धांतों के साथ खिलवाड़ की दुहाई दें, लेकिन इन सबके बीच ये सवाल उठता रहेगाे कि....दलबदल विकास का है या स्वार्थ का?

Tuesday, 28 June 2016

##दून ##के @दबंग#




बेरोजगारी की "मार"
देहरादून,
 नियमितिकरण की मांग को लेकर प्रदेशभर में हड़ताल पर चल रहे उपनल कर्मियों ने जुलूस निकालकर सचिवालय कूच किया
उपनल कर्मचारी दो दिनों से हड़ताल पर हैं। आज उपनल कर्मचारी बड़ी संख्या में परेड मैदान में धरना स्थल पर एकत्रित हुए और वहां से जुलूस निकालकर सचिवालय के लिए कूच किया। पुलिस ने सचिवालय से कुछ पहले बैरीकेडिंग लगाकर जुलूस को रोक दिया। रोके जाने पर प्रदर्शनकारियों की पुलिस के साथ तीखी नोक-झोंक हुई। इस दौरान पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर लाठीचार्ज कर दिया। पुलिस ने प्रदर्शनकारियों को दौड़ा-दौड़ाकर पीटा, इस दौरान कुछ कर्मचारी चोटिल भी हुए। उपनल कर्मचारियों ने भाग कर अपने को बचाया। उपनल कर्मचारियों का कहना था कि उन्हें बार-बार छलने का कार्य किया जा रहा है। उन्होंने प्रदेश सरकार के खिलाफ जमकर नारेबाजी की। उनका कहना था कि वर्ष 2014 में विधानसभा सत्र के दौरान सदन में तत्कालीन सैनिक कल्याण मंत्री द्वारा उपनल कर्मिकों को विभागीय रूप से संविदा पर लिये जाने एवं किसी भी कर्मचारी को सेवा से पृथक नहीं किये जाने का आश्वासन दिया गया था, साथ ही उनके वेतनमान को बढ़ाये जाने का भी आश्वासन मिला था, लेकिन आज तक इस पर कोई कार्यवाही नहीं हुई। कैबिनेट ने भी इसका निर्णय लिया था, लेकिन दो वर्ष से अधिक समय व्यतीत होने के उपरांत भी अभी तक शासन द्वारा कार्मिकों को विभागीय रूप से संविदा पर लिये जाने अथवा नियमितीकरण के संबंध में कोई कार्यवाही नहीं की गई है।

#बजट पर रार#...##बरकरार##

बजट पर रार...बरकरार


प्रदेश का सियासी संकट तो किसी तरह से निपट गया लेकिन इस सियासी संकट से उपजे वित्तीय संकट के बादल अभी छटते नजर नहीं आ रहें है। आलम ये है कि प्रदेश में वित्तीय संकट गहराता जा रहा है और राष्ट्रपति शासन के खिलाफ कोर्ट में लगभग 53 दिन की लड़ाई जीतने के बाद अब राज्य सरकार इस उपजे संकट को लेकर भी आर पार की लड़ाई के मूड में है। 30 जून तक अगर सरकार बजट का इंतजाम नहीं करती है तो हालात बेकाबू होना तय है। ऐसा इसलिए क्योकि राज्य कर्मचारियों का वेतन, पेंशन समेत तमाम ऐसे खर्चे है जो राज्य सरकार की गले की फांस बनते जा रहें है। हालाकि इन खर्चों के लिए फिलहाल राज्य सरकार ने बाजार से कुछ पैसा उठाकर पूर्ति करने की कोशिश तो की है लेकिन ये इंतजाम भी अब ज्यादा दिन ठीकने वाला नहीं है।

दरअसल सियासी संकट के बाद राज्य का वित्तीय बजट पारित नहीं माना गया था लिहाजा केंद्र ने राज्य को चार महीनों का लेखानुदान कुल 13 हजार 642 करोड़ दिया था जो की जुलाई माह तक के लिए है। लेकिन ये धनराशि राज्य के तमाम खर्चों के साथ साथ सरकार की तमाम विकासकारी योजनाओं और तमाम घोषणाओं का सपना कैसा पूरा करें ये सवाल अब दिन ब दिन बड़ा होता जा रहा है।

वहीं इस संकट से उबरने के लिए राज्य सरकार के पास केवल तीन ही रास्ते बचे हैं। पहला- केंद्र से और पैसा पारित करने की गुहार लगाना। दूसरा- केंद्र की मनमानी के खिलाफ कोर्ट का रुख करना। और तीसरा- खुद बजट सत्र आहूत कर सदन में बजट पेश कर उसे पारित कराना। पहले विकल्प का प्रयोग तो राज्य सरकार लगातार करती ही आ रही है लेकिन दूसरे विकल्प यानि कोर्ट का दरवाजा खटखटाने और सियासी संकट के चलते कोर्ट के तमाम चक्कर काटने के बाद राज्य सरकार ने मानो काफी सोच समझ कर तीसरे विकल्प की ओर कदम बढ़ाया है।
सरकार ने विनियोग विधेयक को पारित करने के लिए आने वाली चार और पांच जुलाई को विधानसभा का विषेश बजट सत्र बुलाया गया है जिसमें विनियोग विधेयक को पारित करना सरकार की बड़ी चुनौतियों में से एक होगा। वो इसलिए भी क्योकि नए सिरे से सदन के पटल पर विधेयक को रखना सरकार को एक बार फिर से मत विभाजन की स्थिति में डाल सकता है। ऐसे में ऐसी तमाम संभावनाओं से बचने और अपनों की बगावत के बाद मुख्यमंत्री हरीश रावत इस वक्त हर कदम फूक फूक कर जरुर रख रहें होंगे।
बीते 53 दिनों के घटनाक्रम में कहीं न कहीं मात खाने के बाद अब केंद्र एक बार फिर राज्य सरकार को घेरने की कोशिशों में जुटा है। शायद यही राजनीति है जिसमें सरकार बनान सरकार के खेल में आम जनता का ही नूकसान होता है। जहां इस खेल में जीतना केंद्र की साख और नाक का सवाल है तो वहीं चुनावों से ठीक 6 महीने पहले राज्य सरकार के हाथ पांव बंधे होने से राज्य सरकार का बौखलाना भी जायज है।  



#राजनीति# की #रस्याण#

छुयाल प2
 राजनीति की रस्याण

जी हाँ आजकल कु टेम मा राजनीति अब बस रस्याण सिर्फ बन्कि रै ग्याई ।खूब रस्याण आणि...मजा आणि किले की विकास की राजनीति ता गदनु माँ डाल दये त्यु नेतौंन।
        आज का चकाचोंद माँ अब नेता भी हमर राजनीति कु डिस्को डान्सर ह्वे गेन , आर वैकि चक्कर माँ राजनीति माँ स्वार्थ भाव खुद ऐ जांदू। किले की चकाचोंद कु दुनिया यनि च की जैकी चक्कर मा मनखी सब बिसरी कि इ घोटाला भरष्टाचार रुपी पाप की  ढिंडि माँ गोता लगणु कु मजबूर ह्वे जांदू। आर वीं चकाचोंद का बाना निर्भगि  गलती ह्वे जांदी । मेरु मतलब आप समझने ह्वेलि.. हांजी उ फिर बाद माँ बड़ु घोटाला कु रूप माँ समणी  आन्दु ।
   ...आजकल जू हमर राजनेता या हमर जनप्रतिनिधि छन उन्की राजनीति सिर्फ और सिर्फ स्वार्थ भाव पर चलनी च। सब कुर्सी कु पिछने भगणा छन् । कै ते दायित्व चेंदु  ता केते मंत्रिपद। पर ई सब कु बीच जनता कु हित क बारे मा क्वि नई सुचुदु। जनता ता बस ये आस माँ रौंदी की कभी नेता जी ढिंडि बिटकि माछा पकड़ी लाल आर माछा ना तो कम से कम सुरवा त पिलाल। पर वक बिटिकि निकलदु भ्रस्टाचार नाम कु मगरमच्छ।
          
        पर इन नी च की सभी हमर राजनेता इन्ही ह्वा । पर अधिकतर नेता बसस राजनीति की रस्यण लिण मा ही मगन छन। बस ऊ नेता से यही उम्मीद कर्दू की कम से कम वी जनता बार मा भी सोचा जॉन तुमते कुछ सोची की वोट द्याई।

Monday, 27 June 2016

#लोकतंत्र# या #वोटतंत्र#?

लोकतंत्र या वोटतंत्र? कहते है कि लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत या यूं कहें कि उसका आधार लोक यानि जनता होती है। जनता चाहे तो किसी को भी फर्श से अर्श या अर्श से फर्श पर पल भर में पहुंचा सकती है। इसके लिए जनता के पास जो सबसे बलशाली हथियार है वो है उसका वोट देने का अधिकार। यहीं वजग है कि सत्ता को पाने के लिए जनता को लुभाना बेहद जरुरी है। इसलिए जनमानस को लुभाने के लिए आजकल राजनेता हर मुमकिन कोशिश को आजमाने में कसर नहीं छोड़ रहें है। जनता के जितना करीब जाकर पार्टी का प्रचार या गुणगान किया जाए, परिणामों में उतने ही फायदे का अनुमान लगाया जाता है।यहीं वजह है की इंटरनेट और टेलिविजन के इस युग में चुनावी रैलियों ने अपना वजूद कायम रखा है। बात अगर सीधे सीधे उत्तराखंड की करी जाए तो 2017 के चुनाव का बिगुल तमाम राजनैतिक दल फूंक चुकें है। और अब ये साफ है कि आने वाले 6 महीनों में राजधानी समेत तमाम बड़े और छोटे शहरों में हो हल्ला बढ़ना तय है। लेकिन यहां सवाल ये उठता है कि अगर तमाम राजनैतिक दलों की रैलियों का क्रम इसी तरह चलता रहा तो आखिर उन्हें वोट देने वालें लोगों के अधिकारों का हनन भी साफ तोर पर होता रहेगा। दरअसल मैं एसा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि अगर एक तरफ रैलियां निकाले जाना तमाम राजनैतिक दलों का लोकतांत्रिक अधिकार है तो फिर इस अधिकार का लाभ उठाने के लिए आमजनता के अधिकारों का हनन आखिर कब तक।जाहिर सी बात है कि जब भी प्रदेश के किसी भी कोने में रैली या महा रैली का आहवान कर हजारों लाखों की भीड़ को इक्ठ्ठा किया जाता है तो शासन प्रशान के लिए भी सुरक्षा और व्यवस्थाओ को चाक-चौबंद करने की पूरी जिम्मेदारी होती है। ऐसे में रैली से पहले और रैली के बाद में जो हुजूम पैदा होता है उससे आम जनता की नाक में दम हो जाता है। ट्रैफिक की धज्जियां उठ जाती तो सरकारी के साथ साथ प्राइवेट परिवहन व्यवस्था चरमरा जाती है। स्थानीय लोग तो इस अवस्था में किसी तरह काम चला लेते हैं लेकिन जो लोग उस समय मजबूरी या घूमने के सिलसिले में इलाकें में आए हों उनको वो दिन लंबे अरसे तक याद जरुर रहता होगा।


लोकतंत्र की ये अनूठी आजादी किसी को फायदा पहुंचाती है तो ठीक उसी वक्त किसी के लिए परेशानी का सबब बनती है। पर तमाम दलों को ये कौन समझाए कि जनता रैलियों में उपलब्धियां गिनाने से नहीं विकास की गंगा बहाने पर वोट देती है। लेकिन तमाम दलों के लिए लोकतंत्र का अर्थ केवल चुनाव...चुनावों का अर्थ पोस्टर-भाषण...उसेक बाद दलबदल राजनीति फिर मध्यावति चुनाव, राष्ट्रपति शासन और आखिरकार एक बार फिर चुनाव....शायद यही रह गया है। काश मेरे देश और प्रदेश में कुछ ऐसा हो जाए कि लोकतंत्र वोटतंत्र से बचने में कामयाब हो सके।



#गौड़ी #जन रमाल च #तन दुधाल भी हुन्दी#


एक हमारी पुराणी कहावत च क़ि बल ।।
गौड़ी जन रमाल च  तन दुधाल भी हुन्दी ???
     या ही स्थिति आजकल हमर उत्तराखंड माँ भी हुई च, आजकल जग जगा रैली हुना छन
कखि बैठक क दौर चलूँनु च,,, और खूब हल्ला मचुनु च की अब उत्तराखंड कु विकास कल्ला ।
 पुराणी सरकरो कु मुंड माँ सारा कु सारा इलज़ाम लगे जणू च की पुराणी सरकारू कुछ नी करी ,,पर निर्भगी यान भी नई सूचणा छन की यक् पेली सरकार कैकि छे । यक् ता बारी लगी छन ,,कभी तू और कभी मी,,,पर उत्तराखंड की जनता नंबर अभी तक नई आई,,,हाँ आजकल जरूर आईं च ,,ना ना क्वि  विकास या नोकरी की बात नि मी कनु।। मी बात कनु छों रैली माँ बुलावा कु। आजकल विधायक जी और बाकी नेता जी खूब आवभगत काना छिन। किले की बडू बडू नेता की रैली माँ अप्डू जन बल भी त दिखाण। टिकट कु सवाल जू च। हमर राजनेताओं माँ खूब होड़ लगी च ,खूब दौड़ भी लगणी च,,,की कखि मी पिछने न रे जों ।2017 मा विधायक साहब बणण क ज्वा इच्छा च ,,वींक चक्कर माँ नेताओ क सांस फुलणा च।
           और दौरा, रैली, और बैठक मा बस एक ही बात,,,,पहाड़ कु विकास करला,, पहाड़ की पानी अर जवानी बचोला। रोजगार दयूला,,,और भी पतानी क्या क्या । नेता खूब रमाण छन। पर 16 साल माँ अभी तक दुधाल नेता मीन कभी नी देखि। यखक नेता ता लतवाड़ गोडी क तराँ ह्वे गेन ।
      खैर अब ता बस  हम त जरुरत च यनु नेता की जू रमाल या लतवाड़ जन भी हो, पर जरा दुधाल भी हो ,,
किले की एक कहावत और भी च की,
गौड़ी भले ही लतवाड़ हो पर दुधाल भी हो।